विविध उपन्यास >> एक चिथड़ा सुख एक चिथड़ा सुखनिर्मल वर्मा
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निर्मल वर्मा के रचना-जगत की अपनी विशिष्ट पवित्रता है जिसका आधार है व्यक्ति की पवित्रता-अभिशप्त किन्तु गरिमामय...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निर्मल वर्मा के रचना-जगत की अपनी विशिष्ट पवित्रता है जिसका आधार है व्यक्ति की पवित्रता-अभिशप्त किन्तु गरिमामय। अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों ही स्तरों पर उस वैशिष्ट्य को बनाए रखते हुए "एक चिथड़ा सुख" इस रचना जगत को एक नयी संश्लिष्टता, एक नयी पूर्णता प्रदान करता है। और एक नयी ईमानदारी सामाजिक दायित्व के सिलसिले में।
- सुधीर चन्द्र
इस दुख को भाषा ऐसा व्यक्तित्व प्रदान करती है कि वह एक दैहिक उपस्थिति की मानिन्द सजीव होकर हमारे बीच चला आता है, हमसे बातचीत करता है, अन्त में जीवन के चरम आलोक और मृत्यु के दुर्भेद्य अँधेरे की सीमा रेखा पर हमें छोड़कर अनायास गायब हो जाता है। कहाँ ? पता नहीं चलता। पर एक चीज, जो हमारे पास रह जाती है, एक समझ, एक लौटना, एक पछतावा...।
- मदन सोनी
सुबह के वक्त कोई नहीं आता था। यह उसे अच्छा लगता था। वह अपने कपड़े उतार देता-सिर्फ अंडरवियर पहनकर छत पर चला आता। लेट जाता। लम्बी-लम्बी साँसें खींचने लगता। हवा उसके फेफड़ों में घूमने लगती। रात की बची-खुची नींद उन साँसों में बह जाती।
"तुम फिर नंगे बैठे हो !" भीतर से आवाज़ सुनाई देती।
"मैं वर्जिश कर रहा हूँ।"
"आड़ू।"
पता नहीं चलता, वह सोते हुए कह रही है या सचमुच जाग गई है। मज़ाक में वह उसे "आडू" कहती थी-जब उसकी बेवकूफियों से तंग आ जाती थी। छत पर नंगे लेटना सचमुच आडूपन था। पर उसे यह अच्छा लगता था। वह लेटा रहता और भीतर सन्नाटा छाया रहता।
वह रात को देर से लौटती थी। कभी अकेले, कभी दोस्तों के साथ। लेकिन वे ज़्यादा देर नहीं ठहरते थे। अपना थिएटर का सामान कोने में रख देते, खड़े-खड़े कॉफ़ी पीते-फिर अँधेरे में गायब हो जाते। वह सो रहा होता था। बीच में जाग जाता, फिर सो जाता।
कभी-कभी डैरी भी आते थे, डायरेक्टर, लेकिन सब उन्हें डैरी कहते थे, वह उसके माथे पर हाथ रखते और तकिए के पास बैठ जाते। उनकी लम्बी दाढ़ी उसे सपने में भी दिखाई देती थी। वह उससे बोलते थे और वह ऊँघता हुआ हूँ-हाँ करता रहता। वह सबसे बाद में जाते थे-बिट्टी उन्हें नीचे ज़ीने तक पहुँचाने जाती थी। फिर दरवाज़े की साँकल चढ़ाई जाती, फिर डैरी अपना स्कूटर स्टार्ट करते। बहुत दूर तक वह उसकी इंजन की गड़गड़ाहट सुनता रहता।
सबसे छुट्टी पाकर बिट्टी कमरे में आती। कमरे में आते ही उसे चूमती थी, उसके मुँह को-और फिर उसके बालों को-और तब उसे गुदगुदी-सी होने लगती थी और वह हँसने लगता। बिट्टी कपड़े उतारकर उसके पास ही लेट जाती। बरसाती का दरवाज़ा खुला रहता-हवा में हिलता रहता।
वे मार्च के दिन थे और हवा दिन-रात चलती थी।
"पता है, कितना टाइम हुआ है ?"
वह दरवाज़े पर आकर खड़ा हो गया।
"सब पता है, मुझे सोने दो।"
"बाद में मुझसे मत कहना कि जगाया नहीं।"
वह ज़रा-सी हिली। नींद की यात्रा में वह घिसटते हुए अपने बिस्तर से उसके बिस्तर तक चली आती थी। जब वह यहाँ आया था, तो उसे काफ़ी धक्का-सा लगा था कि बिट्टी फर्श पर सोती है। इलाहाबाद के घर में सबके अलग-अलग पलँग थे। सिर्फ नौकर फर्श पर सोता था।
अब वह खुद फर्श पर सोने लगा था। अब उसे कोई परेशानी नहीं होती थी। अभी नहीं उठेगी, उसने सोचा। वह उसके उठने के आसार जानता था। उठते ही आधी नींद में वह रिकॉर्ड लगाती थी-कोई-सा भी रिकॉर्ड जो बहुत धीमा हो-फिर तकिए के नीचे से सिगरेट का पैकेट निकालती थी। वह भागकर रसोई से माचिस लाता था। हर रोज़ धड़कते दिल से पूछता था-"बिट्टी, मैं जलाऊँ ?" और वह उसका हाथ पकड़ लेती थी और तब तक पकड़े रहती थी जब तक तीली की लौ उसकी उँगलियों तक नहीं सरक आती थी। वह उसे वहीं छोड़ किचन में भाग जाता था।
वह एक छोटे कद का लड़का था, दुबला-पतला, बिट्टी का कज़िन। बिट्टी के दोस्त उसे इसी नाम से बुलाते थे। जब स्टूडियो में रिहर्सल खत्म हो जाता और शाम खाली होती तो उनमें से कोई ज़रूर कहता था, "लेट अस गो टु द कज़िन्स।" और वे बिट्टी की बरसाती में चले आते, बियर पीते, काफी शोर मचाते और तब तक जमे रहते जब तक बिट्टी उन्हें बाहर नहीं निकाल देती थी।
वह किचन में चला आया।...स्टूल पर खड़ा होकर बाहर देखने लगा। पहले क्षण कुछ भी दिखाई नहीं दिया। मार्च की हल्की धुंध पर सिर्फ एक गुम्बद दिखाई देता था-पेड़ों के ऊपर अटका हुआ। वह उन खँडहरों का हिस्सा था, जो मकानों की पीठ-से-पीठ लगाए दूर तक चले गए थे। पहले दिन जब यहाँ आया था तो उसे बहुत हैरानी हुई थी। दिल्ली भी कैसा शहर है ! मुर्दों के टीलों-तले लोग जिन्दा रहते हैं।
"तुम फिर नंगे बैठे हो !" भीतर से आवाज़ सुनाई देती।
"मैं वर्जिश कर रहा हूँ।"
"आड़ू।"
पता नहीं चलता, वह सोते हुए कह रही है या सचमुच जाग गई है। मज़ाक में वह उसे "आडू" कहती थी-जब उसकी बेवकूफियों से तंग आ जाती थी। छत पर नंगे लेटना सचमुच आडूपन था। पर उसे यह अच्छा लगता था। वह लेटा रहता और भीतर सन्नाटा छाया रहता।
वह रात को देर से लौटती थी। कभी अकेले, कभी दोस्तों के साथ। लेकिन वे ज़्यादा देर नहीं ठहरते थे। अपना थिएटर का सामान कोने में रख देते, खड़े-खड़े कॉफ़ी पीते-फिर अँधेरे में गायब हो जाते। वह सो रहा होता था। बीच में जाग जाता, फिर सो जाता।
कभी-कभी डैरी भी आते थे, डायरेक्टर, लेकिन सब उन्हें डैरी कहते थे, वह उसके माथे पर हाथ रखते और तकिए के पास बैठ जाते। उनकी लम्बी दाढ़ी उसे सपने में भी दिखाई देती थी। वह उससे बोलते थे और वह ऊँघता हुआ हूँ-हाँ करता रहता। वह सबसे बाद में जाते थे-बिट्टी उन्हें नीचे ज़ीने तक पहुँचाने जाती थी। फिर दरवाज़े की साँकल चढ़ाई जाती, फिर डैरी अपना स्कूटर स्टार्ट करते। बहुत दूर तक वह उसकी इंजन की गड़गड़ाहट सुनता रहता।
सबसे छुट्टी पाकर बिट्टी कमरे में आती। कमरे में आते ही उसे चूमती थी, उसके मुँह को-और फिर उसके बालों को-और तब उसे गुदगुदी-सी होने लगती थी और वह हँसने लगता। बिट्टी कपड़े उतारकर उसके पास ही लेट जाती। बरसाती का दरवाज़ा खुला रहता-हवा में हिलता रहता।
वे मार्च के दिन थे और हवा दिन-रात चलती थी।
"पता है, कितना टाइम हुआ है ?"
वह दरवाज़े पर आकर खड़ा हो गया।
"सब पता है, मुझे सोने दो।"
"बाद में मुझसे मत कहना कि जगाया नहीं।"
वह ज़रा-सी हिली। नींद की यात्रा में वह घिसटते हुए अपने बिस्तर से उसके बिस्तर तक चली आती थी। जब वह यहाँ आया था, तो उसे काफ़ी धक्का-सा लगा था कि बिट्टी फर्श पर सोती है। इलाहाबाद के घर में सबके अलग-अलग पलँग थे। सिर्फ नौकर फर्श पर सोता था।
अब वह खुद फर्श पर सोने लगा था। अब उसे कोई परेशानी नहीं होती थी। अभी नहीं उठेगी, उसने सोचा। वह उसके उठने के आसार जानता था। उठते ही आधी नींद में वह रिकॉर्ड लगाती थी-कोई-सा भी रिकॉर्ड जो बहुत धीमा हो-फिर तकिए के नीचे से सिगरेट का पैकेट निकालती थी। वह भागकर रसोई से माचिस लाता था। हर रोज़ धड़कते दिल से पूछता था-"बिट्टी, मैं जलाऊँ ?" और वह उसका हाथ पकड़ लेती थी और तब तक पकड़े रहती थी जब तक तीली की लौ उसकी उँगलियों तक नहीं सरक आती थी। वह उसे वहीं छोड़ किचन में भाग जाता था।
वह एक छोटे कद का लड़का था, दुबला-पतला, बिट्टी का कज़िन। बिट्टी के दोस्त उसे इसी नाम से बुलाते थे। जब स्टूडियो में रिहर्सल खत्म हो जाता और शाम खाली होती तो उनमें से कोई ज़रूर कहता था, "लेट अस गो टु द कज़िन्स।" और वे बिट्टी की बरसाती में चले आते, बियर पीते, काफी शोर मचाते और तब तक जमे रहते जब तक बिट्टी उन्हें बाहर नहीं निकाल देती थी।
वह किचन में चला आया।...स्टूल पर खड़ा होकर बाहर देखने लगा। पहले क्षण कुछ भी दिखाई नहीं दिया। मार्च की हल्की धुंध पर सिर्फ एक गुम्बद दिखाई देता था-पेड़ों के ऊपर अटका हुआ। वह उन खँडहरों का हिस्सा था, जो मकानों की पीठ-से-पीठ लगाए दूर तक चले गए थे। पहले दिन जब यहाँ आया था तो उसे बहुत हैरानी हुई थी। दिल्ली भी कैसा शहर है ! मुर्दों के टीलों-तले लोग जिन्दा रहते हैं।
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